( माँ की मोहब्बत़ और उसके ऐहसान औलादों पर)

दिल टूटा ज़ुंबा ज़ख़्मी नज़र कमज़ोर मुझको
उनपर तर्स आती है के फिक़्र मे कोई माँ अपने
किसी बच्चे की जब आंसू बहाती है



बुरे कितने भी हो औलाद फ़िर भी वालिदैंन की
दोआ कुछ इस तरह से बच्चों के काम आती है
 खड़ी हो मौत भी गर सामने तो कांप जाती है



श़िक्में मादरी मे जब रहे हम सब कभी माँ के
 किसी को क्या ख़बर और क्या पता के हम सबके
 लिए माँऐ कैसे कितनी तक़्लीफे उठाती है



लूटा कर ज़िंदगी अपनी ख़ुद को जो ग़मग़ीन करती है
 वो बस ऐक माँ ही है ख़ुशी बच्चों को देकर अपने
जज़्बातो को जो हर दम जलाती है



के जैसे बचपना बीता हमारा उनके साये मे तमाम
 मश़्किलो मे भी जो श़फ़क़्ते मुझपर लुटाती है
मेरी सारी तक़्लीफो को बस माँ ही मेरी जान पाती है



दोआ आरिफ़ की है ख़ोदाया माँ किसी की भी हो
 कभी महरूम ना करना लड़कपन से जवानी तक
 और जवानी से बुढ़ापे तक बस माँ ही याद आती है



           ✒मोहम्मद आरिफ़ इलाहाबादी




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