(दिल की आवाज़)
भटक रहा था तन्हा मुझे ऐक कारवां की तलाश़ थी
मिला जो कारवां तो सबके सब भटके मोसाफ़िर निकले
बहोत सोच कर इराद़ा किया जो वापस फिर से मंज़िल का
अब ना रस्ते याद आते हैं और ना कोई हमसफ़र निकले
✍मोहम्मद आरिफ़ इलाहाबादी
मिला जो कारवां तो सबके सब भटके मोसाफ़िर निकले
बहोत सोच कर इराद़ा किया जो वापस फिर से मंज़िल का
अब ना रस्ते याद आते हैं और ना कोई हमसफ़र निकले
✍मोहम्मद आरिफ़ इलाहाबादी
Comments