(श़िद्द़ते ग़म)

हर रोज़ इराद़ा करता हूँ मै माज़ी के लम्ह़े भूल जाने की 

तुम्हारी याद आती मै मजबूर होता हूँ और इराद़ा टूट जाता है 


               ✒मोहम्मद आरिफ़ इलाहाबादी


 


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