(द़र्दे मोहब्बत़ अपनो की और अपने वत़न की दिल मे)

मै अपना ग़ुज़रा हुआ वो बचपना कभी जब याद करता हूँ, नमीं आँखों मे होती है तो चेहरे पे मुस्कान लाता हूँ


कभी ज़िद मे माँ बाप से ख़िलौनों की किया करता था फ़रमाईश़,और कभी अपने खिलौनें तोड़कर उसको बनाता हूँ


कभी तोड़ू कभी जोड़ू कभी दोस्तों से जोड़वांऊ, अनोखे और निराले खेल थे जिसको नही मै भूल पाता हूँ


मोहब्बत़ माँ से थी इतनी के सोता था लिपट कर मै, मगर अब तो मुद्द़तो तक माँ को भी नही मै देख पाता हूँ


वत़न की याद आती है तो कूछ भूले हुए वो लम्हें याद आते है, कभी खेली कबड्डी-कुश्ती साथ यारों मे वो चोर और सिपाही का मंजर याद मे दोहराऐ जाता हूँ


बचपन मे नही मालूम था मुझको के ये दूरी भी है अपनो से ऐक फर्ज़े वफ़ादारी, पल भर के लिए भी माँ के आंचल को नही छोड़ने वाला अफ़सोस मै आरिफ़ सालों तक अब माँ को नही देख पाता हूँ



         ✒मोहम्मद आरिफ़ इलाहाबादी

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