(मुल्क़ मे अम़न ही हमारा मक़सद़ और कोश़िश़ है)

ये कैसा क़यामत़ ख़ेज़ मज़र है के छ़ाया है बद़ अम़नी का नज़ारा वत़न मे चारों सूं

ना इनसांनियत़ है किसी मे अब और नाही कोई करता है मोहब्बत़ की आरज़ू

इन नफ़रतों की वजह से कुछ फिर्क़ा प्रस्तों के, है हर कोई श़क़ के घेरे मे

अब ना कोई हमदर्दी़ बची है मुस्लिम की तेरे मे और ना हिन्दू की मेरे मे


दूर करेंगे हम मिल कर गिले श़िक़वे नफ़रतों के तो इनसांनियत़ बच जाएगी

वर्ना सक़ाफ़ते हिन्दोस्तां मोहब्बत़ भाई चारे का अद़ावत़ के जहन्नुम मे जल जाएगी


✍मोहम्मद आरिफ़ इलाहाबादी

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