(श़िक़वा भी अपनो से और मोहब्बत़ अपनो से)

रात की तनहांईयो मे मै अक़्सर सोचा करता हूँ यही के
ये रात भी कितनी बेवफ़ा है सुबह तक साथ और फ़िर छोड़ देती है दिन की बेबसी

आंसू की क़ीमत कौन देता है किसी को इस जहांन मे बस हौसला देने और हमदर्दी दिखाने के लिए ज़ुबाँ हिला देते है लोग

गया हूँ यूँ तो मै मौत़ के बहोत क़रीब और कई बार लेकिन ऐक मेरी माँ की ममता की दिल से निकली हुई दोआ़ है जो मुझे मरने नही देती

मिलते है एैसे लोग हर ज़माने मे आरिफ़ पहचांन पाना मुश़्किल है यहां जिन्हें कभी किसी ग़रीब रिश़्तेदारो से नफ़रत थी उनकी तंग द़स्ती ग़ुर्बतो ग़रीबी से

 मगर है ये ताज्जुबख़ेज़ के वो उन्हीं ग़रीब रिश़्तेदारो को डूंडते फ़िरते है श़हेर श़हेर गांव गांव सिर्फ़ अपनी मक़सदो ज़रूरत के लिए

           

             ✒मोहम्मद आरिफ़ इलाहाबादी

Comments